सदियाँ गुजर गयीं -लेखनी प्रतियोगिता -06-Mar-2022
गुजरे दिन, गुजरे महीने
अब तो सदियाँ गुजर गयीं
न आये तुम मुझसे मिलने
मेरी खुशियाँ उजड़ गयीं।
तुम बोले थे जल्दी आऊँगा
धरती माँ का कर्ज चुकाना है
माँ के आँचल को मैला करते
जो उनको सबक सिखाना है।
सदियाँ गुजर गयीं अब तो
प्रिय से मिलन की आस में
सावन की बूँदे आग लगातीं
साजन के प्रेम की प्यास में।
जननी भी दिन -रात तड़पती
देख द्वार की ओर बिलखती
तस्वीरों से तुम्हारी बातें करती
कोने-कोने में वह तुम्हें देखती।
बाबूजी भी बैठे रहते हर वक़्त
नज़रें को टिकाये फ़ोन के पास
किस पल आएगी खबर तुम्हारी
लगी रहती है दिल में यही आस।
गुड़िया रानी रहती तुम्हें ढूँढती
नभ के तारों भरे सुंदर ताल में
दिल तड़प-तड़प देता आवाज़
बेचैन हैं नजरें तेरी तलाश में।
भूलकर हमें क्यों तुम चले गए
शरण ले ली तुमने माँ गंगे की
धरती का कर्ज तो चुका दिया
मेरे पास आये वापस तिरंगे में।
समझ न आता दूँ तुम्हें सलामी
या दुखी हो फूट-फूटकर रोऊँ
या अभिमान करूँ तुम पर प्रिय
सजा मीठी यादें सुकून से सोऊँ।
कई सदियाँ गुजर गयी अब तो
लगता अब भी तुम मेरे साथ हो
नभ में चमके जो उज्ज्वल तारा
मानो मिलने आया मेरा नाथ हो।
डॉ. अर्पिता अग्रवाल
नोएडा, उत्तरप्रदेश
Seema Priyadarshini sahay
07-Mar-2022 05:28 PM
बहुत खूबसूरत
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Punam verma
07-Mar-2022 09:21 AM
Nice
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Abhinav ji
07-Mar-2022 08:34 AM
अति उत्तम
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